जिंदगी की तलाश में तृतीयलिंगीय समाज
जिंदगी की तलाश में तृतीयलिंगीय समाज
प्रतिभा
आज भारत ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में लगातार तरक्की कर रहा है। कहने को तो भारत विश्वगुरू बन गया है और कहने के लिए ही भारत सबका साथ, सबका विकास की भावना के साथ आगे बढ़ रहा है लेकिन सिर्फ कागजों पर और कहने के लिए। कहने को तो तमाम रूढ़िवादी और दकियानूसी सोचों की इस समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए लेकिन आज भी भारत दकियानूसी सोच और भेदभाव के मामले में कहीं आगे है। भेदभाव कई रूपों में है। कहीं जाति के आधार पर, कहीं रंग के आधार पर, कहीं भाषा, क्षेत्र और लिंग आदि के आधार पर। इन सब भेदभावों में जो सबसे ज्यादा होता है वो लिंग के आधार पर होता है। चाहे वो फिर महिला हो या फिर तृतीयलिंगीय समाज। चूंकि इस आलेख का विषय तृतीयलिंगीय समाज है तो हम आगे इसी पर बात करेंगे।
तृतीयलिंगीय समाज का जिक्र तमाम पौराणिक कथाओं में भी मिलता
है। चाहे वो महाभारत में अर्जुन का बृहन्नला बनना हो या फिर कैलाश पर रहकर शिव की
आराधना करता किन्नर समाज हो या फिर रामायण में राम के वन आगमन के बाद से राम का
किन्नर समाज के साथ संवाद हो। किन्नर समाज की जड़ें और उनका इतिहास बहुत ही पुराना
है। समय बदला, इतिहास बदला, समाज बदला, समाज की चेतना, समाज का वैभव सबकुछ बदला बस
नहीं बदला तो किन्नर समाज और उसकी हालत। सदियों से
भेदभाव झेल रहे इस तृतीयलिंगीय समाज के प्रति समाज की घृणा का स्तर लगातार बढ़ता
गया और आज ट्रांसजेंडर समाज के लोगों को घिन्न और नफरत की दृष्टि से देखा जाता है।
जिस समाज को प्रेम, सम्मान, देख-रेख
की आवश्यकता थी, उस समय में मुख्य धारा के समाज की उस
तृतीयलिंगीय समाज के प्रति हीन भावना चरम पर है। आज का तथाकथित समाज खुद को
वैज्ञानिक सोच वाला तो कहता है लेकिन तृतीयलिंगीय समाज के प्रति अपनी नफरत, घृणा और अपनी लिजलिजी और सड़ चुकी मानसिकता को नहीं छुपा पाता है। आज भी
वो अपने परिवार से दूर अकेले जीवन बसर करने को मजबूर हैं, आज भी उन्हें एक सेक्स स्लेव के रूप में देखा जाता है, आज भी वो लोगों से मांगकर खाने को मजबूर हैं।
कार्ल मार्क्स कहते हैं कि जहां भी संपत्ति के बंटवारे की
बात आती है वहां ये पितृसत्तात्मक समाज लिंग के आधार पर भेदभाव करके अन्य लिंगों
से उनके अधिकार छीन लेता है। ऐसा ही कुछ हुआ है तृतीयलिंगी समाज के साथ। उन्हें
उनका ही परिवार तथाकथित सामाजिक मर्यादा के नाम पर जीवनभर अकेले घुट-घुट कर मरने
के लिए छोड़ देता है। एंगेल्स ने ‘एंटी-ड्यूरिंग’ में लिखा कि
हम शाश्वत, अंतिम और हमेशा के लिए अपरिवर्तनीय नैतिक
कानून के रूप में किसी भी नैतिक हठधर्मिता को थोपने के हर प्रयास को अस्वीकार करते
हैं। तृतीयलिंगी समाज के ऊपर हमेशा से पितृसत्तात्मक समाज की हठधर्मिता को हजारों
सालों से थोपा गया है और आज उसका ये परिणाम है कि ये कुंठित समाज उन्हें मानव की
श्रेणी तक में रखने को तैयार नहीं है।
ऐसा नहीं है कि इस ट्रांसजेंडर समाज का आंदोलनों में, समाज
के परिवर्तन में कोई योगदान नहीं है। ये लोग लगातार अपने हक के लिए पूरी दुनिया
में लगातार आवाज उठाता रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण
है अमेरिका में 2020 में हुआ ब्लैक लाइब्स मैटर
आंदोलन। इस आंदोलन में समाज में भेदभाव के खिलाफ तृतीयलिंगीय समाज की सक्रिय
भूमिका रही। 2020 में इस आंदोलन में तकरीबन 13-14 ट्रांसजेंडरों ने अपनी शहादत दी और आज तक ये सिलसिला चल रहा है। हर साल
अपने अधिकारों के लिए ये लोग लगातार शहादत दे रहे हैं।इसके साथ ही पिछले 3 दशकों से पूरे विश्व के कई देशों में लगातार LGBTQ आंदोलन चल रहा है जो अपने हक-हकूक की लड़ाई लड़ रहा है।
भारतीय इतिहास की तारीख में 15 अप्रैल 2014 की तारीख को स्वर्णिम अक्षरों में अंकित कर देना चाहिए जब देश की सर्वोच्च
अदालत ने तृतीयलिंगीय समाज को उनका अधिकार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 14,16 और 21 का हवाला देते हुए कहा कि
तृतीयलिंगीय समाज भी देश का नागरिक है और जिस प्रकार संविधान में देश के अन्य
नागरिकों के मौलिक अधिकार हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक स्वीकार्यता है उसी प्रकार तृतीयलिंगीय समाज को भी
ये सारे अधिकार मिलें। सुप्रीम कोर्ट ने इस समाज को पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में
लाकर आरक्षण देने की बात भी कही। अब सवाल ये है कि क्या
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद किन्नर समाज के जीवन में कोई आमूल-चूल परिवर्तन
आया है?
अगर इस प्रश्न का जवाब हम अगर जमीन पर जाकर खोजेंगे तो
पाएंगे कि इस समाज की हालत में कुछ खास सुधार नहीं आया है। आज भी वो उस दयनीय
स्थिति में जीवनयापन करने के लिए बाध्य हैं। इसके पीछे की वजह यदि हम जानना चाहें
तो पाएंगे की इस समस्या के समाधान में सबसे बड़ी बाधा इस सड़ चुके मुख्य धारा के
समाज की बास मारती सोच जो बार-बार तृतीयलिंगीय समाज को उनके अधिकार नहीं देने पर
अड़ी हुई है।
वर्तमान समय में मोदी सरकार ने भी किन्नरों को उनका हक
दिलाने के लिए, उनके सामाजिक उत्थान के लिए कोई खास कदम नहीं उठाया है। यूपी में किन्नर
कल्याण बोर्ड का गठन किया गया है लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किन्नर समाज अपने
हक-हकूक के लिए जागरूक नहीं है। अब किन्नर समाज लगातार अपने हक के लिए आवाज उठा
रहा है, अपने हक के लिए लड़ रहा है और लड़कर अपनी
हिस्सेदारी ले भी रहा है। अब सवाल ये है कि
संघर्ष की इस धीमी गति से मुख्यधारा के समाज में आने में कितना समय लगेगा।
मुख्यधारा के समाज से जुड़ने के लिए उन्हें और कितने बलिदान देने होंगे ?
प्रतिभा
शोध छात्रा
हिंदी
और अन्य भारतीय भाषा विभाग
महात्मा
गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी
221002, (यू.पी.)
सार्थक
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