मसान के फूल

 

मसान के फूल

डॉ. इन्दु गुप्ता

 

सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा तथा संगीत, नृत्य व नाट्य की विभिन्न शैलियों में कला अनुभव व वैभव से सुसमृद्ध... सुसम्पन्न संगीत-साधकों तथा कला-मनीषियों और प्रचुर रोशनी से जगमगाते हॉल में मंच उद्घोषक की आवाज़ लगातार गूंज रही थी। 'मानसी सुखदा' को हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में उनके योगदान हेतु सर्वोच्च सम्मान के लिए मंच पर पधारने का ससम्मान आग्रह किया जा रहा था। राष्ट्रपति महोदय से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त करने का दर्प मानसी के मुखमण्डल पर दिप-दिप दैदीप्यमान हो रहा था। हरी नारंगी कांचीवरम, घुटनों तक लम्बी चोटी पर सजा बेला का गजरा, अवसर मुताबिक सुरूचिपूर्ण सुन्दर हल्के आभूषण। साड़ी संभालती मानसी सुखदा मां और गुरूमां कृष्णप्रिया देवी और नारंगी कुर्ते तथा नीली डेनिम में बैठे श्रीहास के बगल से उठकर स्टेज की तरफ बढ़ चली थी।

सुखदा की आंखें झर-झर बरस रही थीं। अड़तीस बरस पहले भी उसकी आंखें इसी तरह बरसी थीं, उस नर्सिंग होम में जहां सुखदा ने मानसी को जन्म दिया था। अश्रु-वर्षा इसलिए नहीं कि प्रसव बहुत कठिनाई से हुआ था, क्योंकि शायद वह तो होना ही था। यों भी कहते हैं बच्चे को जन्म देना तो मां के लिए पुनर्जन्म-सरीखा ही होता है। बच्चे को जन्म देते समय ही क्यों, औरत को तो अमूमन रोज़ ही सौ-सौ बार मरण-जन्म भोगना होता है। फिर यहां तो सुखदा ब्याह के सोलह बरस बाद पकी उम्र में पुनः मां बन रही थी। असल में चौदह बरस के जुड़वां शिवांग और अनुराग की मां सुखदा को अनजाने में ठहरे गर्भ के बारे में जब पता चला तो भ्रूण पांच महीने से ऊपर का हो चुका था।  ऊहापोह की बेचारा-स्थिति में गर्भपात का न हो सकना, तब उन्हें और उनके पति को अब तक परिस्थितिवश दबी रही बेटी पाने की उनकी उत्कट चाह पूरा करता संयोग प्रतीत हुआ था। हालांकि जानती थी कि उस समय में सहायता हेतु ससुराल  और मायके से कोई उपलब्ध नहीं है... ।

याद है उसे जब आठवें माह में नियमित जांच के दौरान उनकी मित्रवत डाक्टर ने कहा था "अरे रे सुखदा, यह क्या! भ्रूण-स्पंदन या फीटल मूवमेंट नहीं मिल रही है..." सुनकर घबराहट-भरी सुखदा के सफेद-स्याह होते चेहरे पर कुछ अनमोल खो देने का दर्द अनायास ही आंखों की राह टप-टप बरसने लगा था... तब पुख्ता-तौर पर जाना था उसने कि वह अन्चीन्हा बच्चा अवांछित तो हरगिज़ नहीं है बल्कि निश्चित ही ईश्वर की देन-सा सदैव चिर प्रतीक्षित है... "डॉक्टर साहिबा, आप एक-बार ठीक से... " और तब घबरायी हुई डॉक्टर सविता ने कुछ मशीनें... शायद एम्प्लीफायर लगाकर जांचा था कि बच्चा बिल्कुल नीचे है और ठीक भी है, शायद आराम फरमा रहा होगा। सुन-जानकर ही तो मानो उसके जान-प्राण वापिस लौट सके थे। डाक्टर की सलाह पर गर्भ-जल(गर्भोदक) जांच हेतु करवाई सोनोग्राफी के दौरान उस दिन सोनोग्राफर ने शायद यों ही पूछ लिया था कि उन्हें लड़का चाहिये या लड़की? तब उसकी बात बीच में ही काटकर सुखदा ने झट से कह दिया था "बेटी" और जब उसने कहा "बधाई हो, लगता है भगवान ने आपकी सुन ली।" सुनकर पुलक से भर उठा था सुखदा का मन और नयनों में झूम-घूम उठा था एक खिलखिलाता कन्या-स्वरूप।

नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहाकर आई थी, जब सुखदा डॉ सविता के नर्सिंग होम में एक किलकारी की प्रतीक्षा में असीम प्रसव-वेदना से तड़प रही थी। समय अधिक बीतता देख, बच्चे को सही सलामत जन्माने हेतु डॉक्टर ने उसे बाहोश ही झटके से चीरा लगा दिया था, तो बिलबिला उठी थी वह दर्द से। फिर प्रसव के बाद खींच-खींच कर लगते टांके... दांत भींचकर सब सह गयी थी। प्रसव के समय की उस असीम पीड़ा के सैलाब से उबरकर सुखदा ने हांफते मुख और मुंदती हुई-सी आंखों से डॉक्टर सविता की तरफ नज़र उठाकर देखा तो वह परेशान और बहुत चुप थी। "क्या हुआ... बेटी की जगह लड़का है क्या? " मन में मरोड़ की तरह उठती किसी अनजान आशंका से सुखदा की आवाज़ भी तो कांप उठी थी। "सुखदा बहन कैसे कहूं...?  असल में बच्चा अलग है, वह न लड़का है और न ही लड़की... समझ नहीं आता क्या कहूं...?" डाक्टर की गम्भीर आवाज़ में निराशा का चारकोल घुला हुआ था।

" नहीं नहीं, ऐसे कैसे सोनोग्राफी में तो बेटी... बताया था न, फिर ऐसे कैसे? " मानो कुदरत के मज़ाक को अपने प्रतिवाद से बदल देना चाहती थी सुखदा।

"असल में... यह ज़रूरी नहीं है कि सब कुछ एकदम स्पष्ट रूप से पता चल जाये।" डॉक्टर की अफसोस में भरी गम्भीर आवाज़ गूंजी थी जिसे सुनकर सुखदा का दिल मानो घुटने ही टेक गया। एकबारगी तो ठंडा पसीना उसकी रूह में उतर गया था। उसके बार-बार कहने पर डॉक्टर ने जब उसकी गोद में उस नन्ही जान को सौंपा था...कपास के फाहे जैसी रेशमी देह को हाथ में लेकर उसने भी तो पहले उसके जननांगों को देखा था। बाहर लड़के जैसा कुछ नहीं था। पर अविकसित योनि के साथ वह पूरी तरह लड़की भी नहीं थी। "भीतर भी तो सहज-सामान्य न होकर हॉरमोन्ज़ के खेल में सब उलझा हुआ होगा। "ओह" उसे देख-जानकर वह एकबारगी दहाड़ें मारकर रोने लग गयी थी... "उनके साथ ऐसा क्यों! क्या बिगाड़ा है उन्होंने किसी का, उनके आस-पास मित्र, रिश्तेदार और यहां तक कि उनके अपने भी तो पहले जुड़वां स्वस्थ बच्चे हैं... फिर अबकी बार यह बच्चा ऐसा क्यों?"। सवालों से भरा पहाड़ पीठ पर सवार था और सामने गोद में नन्ही-सी जान... सुखदा के सपनों की चादर को धारदार चाकू से तार-तार करती हुई। जानती थी, कि इस बच्चे का भविष्य अंधकारमय था। क्या करेंगे वे इस बच्चे का? इससे अच्छा तो वह पैदा ही न होता...। अचानक सुखदा का मन-जहन मां के आंगन में जा पहुंचा, जहां पड़ोस में लड़के के जन्म पर उसने पहली बार लम्बी-चौड़ी काया वाली, अपने बदन को कई कोणों पर लहराकर तालियां पीटती राजी आंटी को देखा था, जो अपनी सात-आठ जन की टोली को लेकर वहां बधाई देने आई थी। उनमें एक प्यारी-सी उदास लड़की भी दिखी थी। सब कह रहे थे, वह उनके टोले में नयी-प्रविष्टि है। वे सब अपनी चौड़ी-चौड़ी हथेलियों से विशेष तरीके की ताली बजा-बजा कर अपनी भारी-भरकम आवाज़ तथा अजीब से अंदाज़ में बधाई मांग रहे थे।   "मुन्ने की अम्मा जीये तेरा लाला... जीये तोरा लाला हो किस्मत वाला..." लोग उनकी हरकतों पर हंस-हंसकर खूब मज़े भी ले रहे थे, कभी अपनी हथेलियों की आड़ में मुंह छिपाकर उनका मखौल उड़ा रहे थे। हां, साथ-साथ पड़ोसी लोग कोशिश कर रहे थे कि वे जल्दी से चले भी जाएं। क्योंकि बुज़ुर्ग औरतें कह रही थीं कि उनकी बददुआएं नहीं लेनी चाहिये। उनका आशीर्वाद लेने के लिए पड़ोसियों ने उन्हें बहुत से कपड़े, मिठाई और पैसे दिये। हारमोनियम के साथ, ढोलक की थाप पर "भारी-भारी आवाज़ और तालियां पीटते हुए गीत गाते, ठुमके लगा नाचते देख सुखदा ने पूछ लिया था, "मां ये कौन हैं, इतने अजीब और अलग क्यों दिखते हैं...लम्बे-चौड़े रामलीला वाले लोगों, मेरा मतलब रावण जैसे?" दादी ने आंखें बड़ी करके उसे झट बरजते हुए मुंह पर उंगली रखकर चुप रहने का इशारा कर दिया था। तभी उनमें से एक ने मां के साथ चिपककर खड़े उसके छोटे भाई गुड्डू को झटके के साथ गोद में उठाकर उसकी निक्कर में हाथ डाल दिया तो गुड्डू एक पल को तो भौंचक-सा देखता रह गया, फिर भय से चीख पड़ा था। मां ने झट-से गुड्डू को उसकी गोद से छीना और घर की तरफ लौट पड़ी... पीछे-पीछे सुखदा भी।

 "मां बताओ न, ये कौन हैं और ऐसे क्यों हैं?"

"सुखदा ये हिजड़े हैं।"

          "मां इनके मां बाबा... कहां हैं, वे इन्हें डांटते क्यों नहीं... ऐसे अजीब-अजीब तालियां बजाने या गन्दा-गन्दा गाने-नाचने से?"

"इनके मां बाबा कोई नहीं होता और न ही इनके बच्चे होते हैं। इसीलिए जब किसी के यहां इन्हें अपने जैसा बच्चा दिखता है, तो उसे जबरदस्ती अपने साथ ले जाते हैं। ये सब एक जैसे लोग साथ-साथ अपने गुरू के पास रहते हैं और इसी तरह नाच, गा-गाकर अपने खाने, जीने और रहने के लिए पैसे मांगते हैं।"

"इनके मां-बाबा इन्हें खाना क्यों नहीं देते?"

"वही तो...  तू नहीं समझेगी अभी। ये न लड़कों जैसे होते हैं और न ही लड़की जैसे... इसलिए इनके मां-बाबा शर्म के मारे इन्हें अपने घरों से दूर हिजड़ों के गुरू को सौंप देते हैं।" सहमे से गुड्डू को सीने से चिपकाए मां ने धीमे स्वर में फुसफुसाकर उसकी जिज्ञासा को शांत करना चाहा था।

"ये ऐसे क्यों होते हैं मां। मां इनको प्यार कौन करता होगा। इनको खाना कौन... मां ये बेचारे अपने मां-बाबा के बिना कैसे रहते हैं। इन्हें रोना नहीं आता क्या? मां आप इनके मां बाबा को बोलो न, कि इनको वापिस घर आने दें..." अनजाने में ही सही, सुखदा मानो समस्त हिजड़ा जमात को उनकी निरीहता से निजात दिलवाकर उनके मानवीय और नैसर्गिक अधिकार दिलवा देने पर आमादा थी कि तब तक दादी भी घर लौट आई थी... "अरी छोरी जे क्या कह रही है, चुप रह तू। खबरदार जो किसी ते इस बारे म्हं कोई बात की या पूछताछ करी, समझी...।" दादी की डांट सुनकर उसकी जबान ताळू को चिपककर रह गयी थी। परन्तु उसके बाद सुखदा जब भी हिजड़ों के टोले को देखती तो उसका मन न जाने क्यों उनके प्रति सहसा असीम करूणा से और उनके माता-पिता के प्रति अति रोष-आक्रोश से भर उठता। शादी के कुछ बरसों बाद एक दिन मां ने ही सुखदा बताया था कि राजी-हिजड़ा की मृत्यु हो गयी। तब तक वह जिज्ञासावश जान चुकी थी कि हिजड़ों को किन्नर भी कहते हैं और किन्नरों की मृत्यु पर भी उनके शव को जूतों से मारते-पीटते, घसीटते, तिरस्कार करते हुए... धिक्कारते हुए लेजाकर दबाया जाता है ताकि उस अपमान और धिक्कार से त्रस्त होकर वे पुनः इस अभिशप्त किन्नर स्वरूप में न जन्में। राजी किन्नर और उसके जैसे अन्य लोगों का ऐसा घिनौना, बेहाल और अपमान-भरा जीवन-मरण सोचकर सुखदा असीम दुख और क्षोभ से भर गयी थी। हालांकि शिखंडी और वृहन्नला दोनों ही किन्नर के रूप में पुराणों में वर्णित हैं। यानि मानव-समाज में स्त्री और पुरूष के अतिरिक्त एक और लिंग व्यवस्था सदियों से चली आ रही है जिसे अन्य-लिंगी, उभय-लिंगी या इतर-लिंगी मनुष्य कहा जाता है अर्थात जो न स्त्री हैं और न पुरूष। जननांगों के अभाव,, अविकसित या निष्क्रियता होने की शारीरिक-कमी के कारण उत्पन्न नपुंसकता से ग्रस्त मनुष्यों को हिजड़ा या किन्नर कहते हैं।    

"पर मां, उसमें किन्नर या हिजड़ा का क्या दोष? किन्नर होना उन्होंने खुद तो नहीं चुना होता। उन्हें पैदा करने वाले माता-पिता ही उसके लिए जिम्मेदार ठहराये जाने चाहिये या फिर ईश्वर।"

"हां सुखदा, माता-पिता पर कहीं कोई आक्षेप या शर्मिन्दगी न आये, शायद इसी डर से वे अपनी ऐसी संतान का परित्याग कर निजात पा लेते हैं।" "तभी तो... यों माता-पिता द्वारा फेंक दी औलादों को, फिर कौन उन्हें पढ़ाए-लिखाये, कौन किसी काम-लायक बनाये? बस इसीलिए वे परजीवी जैसे हो जाते हैं।"

" पर मां अन्य अंग-भंगी, शारीरिक रूप से अक्षम या विकलांग मनुष्यों के प्रति तो हम करूणा का भाव रखते हैं। उनको आरक्षण, सहायता और अन्य सुविधाएं मुहय्या करवाते हैं, फिर जननांग दोषियों के साथ इतना बुरा सुलूक क्यों?" कहकर वह दुःख में रो ही पड़ी थी।

"हमारे समाज के ढर्रे के बारे में मैं क्या कहूं? अच्छा तू इतना हलकान-परेशान न हो। अपने बच्चों का ध्यान रख।" कहकर मां ने उसे किसी तरह शांत करवाया था।

ओह, तो क्या अब उनका यह बच्चा भी... अभी तक तो वह किन्नरों को देखकर सिर्फ उनके दुःख को महसूस करने वालों में शामिल होती थी परन्तु अब तो वह इस गुनाह को करने वालों में... "नहीं नहीं" कहकर  सुखदा ने उसे अपनी छाती में भींचा था तो मानो सीने में हलचल-सी मच गई। शायद भीतर से आप्लावित होते ममत्व, अमृत, वात्सल्य सब आतुर थे... उस नन्ही-जान पर न्यौछावर हो जाने को। फिर जल्दी ही आंसू पोंछ, शिला बन उसने अपनी जाया के साथ खड़े रहने का संकल्प साध लिया था। उसने अपनी सखी सम डॉक्टर के सामने हाथ जोड़ दिये, "डॉक्टर साहब, मेरा मतलब सविता बहन! इसे बेटी ही लिखना।" डॉक्टर बहुत देर तक उसे एकटक देखती रही थी, फिर जाने क्या सोचकर या उसकी बात मानकर बाहर प्रतीक्षारत खड़े उनके परिवार को बेटी होने का समाचार दिया तो सुखदा के पति और दोनों बेटे खासे खुश हुए थे। उन्होंने लड्डुओं से सबका मुंह मीठा करवाया। बच्चे का नामकरण हुआ मानसी। घर आकर सुखदा की असली ज़द्दोज़हद शुरू हुई। वह उसके काम के लिए किसी पर भरोसा न करती। पति तथा पुत्रों शिवांग और अनुराग को भी उसके आस-पास घूमने और ऊपर का काम करने को देतीं ताकि उनके बीच मोह और प्रेम का आबंध मजबूत बनता जाये। परन्तु मानसी को नहलाने, कपड़े बदलने तथा सुलाने का सारा काम स्वयं करती। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा,  प्रसूति-अवकाश के बाद उसे अपनी नौकरी पर भी पलटना होगा। बहुत सोचकर सुखदा ने अपनी कामवाली सीताबाई, जो लगभग छः महीने पहले काम मांगने आई थी और गर्भवती सुखदा ने उसे काम दे भी दिया था, से पूरा समय मानसी के साथ रहकर उसकी देखभाल करने के लिए बात की। उनकी बात मानकर सीताबाई ने साथ के खाली प्लॉट में अपनी झुग्गी बना ली थी। तब उसके साथ पांच-छः साल का एक विकलांग बेटा था, जो न बोल सकता है और न ही चल फिर। मुंह से टपकती लारों और कांपती देह के साथ बिस्तर में लेटा रहता। उसके तथा अपने भरण-पोषण के लिए सीताबाई को काम करना भी ज़रूरी था... जब वह काम पर आती तो उस समय उसकी देखभाल और सुरक्षा के बारे में सोचकर उसने दूर की सम्बन्धी एक अनाथ वृद्धा को अपने पास आश्रय दिया हुआ था। सीताबाई के हालात और जज़्बा देखकर सुखदा हैरान रह गयी थी।

"ओह सीता... तेरा बाकी परिवार?"

"सब है बीबीजी। पर लड़का अपाहिज पैदा हो गया तो आदमी ने उसे पालने की मने कर दी कि रात को सड़क पे डाल देंगे। जो होना होगा, हो जायेगा इसका... पर बीबीजी मैं मां हूं, कैसे छोड़ दूं अपने जाये को? मैंने तो उतनी ही पीर सही इसको जनने में, जितनी या के भाइयन कू जन्मने में सही। यू ऐसा हैगा तो या म्हैं इसको कहा दोस? कमी तो हमारी ही रही होगी या म्हारे भाग्य की। इसनै तो सहारा चहिये... जे मां भी छोड़ देगी तो और कोण साथ देगा? आदमी न मानया तो मनै घर छोड़ दिया, पर इन्नै छोड़ कै होर पाप कोएना कमा सकती बीबजी। अब काम तो करना ही पड़ै, सो अपणे ताईं एक मां अर गोपाल तईं नानी ढूंढ ली मनै।"

यह बताते हुए सीताबार्ई के चेहरे पर सुकून और संतुष्टि का भाव पढ़ा था उसने।सीताबार्ई का हिम्मती किरदार मानो सुखदा को चुनौती देता हुआ प्रतीत हुआ कि क्या तुम सीताबाई से भी गई गुज़री हो जो अपने शारीरिक रूप से साबुत बच्चे को अपने साथ रखने में असमंजस की स्थिति में हो! यह देखकर सुखदा की मानसी के प्रति रह-रह कर डोल जाती दायित्व-प्रतिबद्धता और भी गहरी तथा अविचल हो गई। उसने ठान लिया कि वह अपना बच्चा किसी को भी नहीं देंगी... कभी भी नहीं... चाहे जो भी हो। उस दिन से सीताबाई सुखदा की प्रतिरूप, राज़दार तथा संघर्ष-यात्रा की रहबर और मानसी की तो मानो प्रतिच्छाया हो गई। वे दोनों मिल-बांटकर मानसी को नहलाना-धुलाना, स्कूल ले जाना, उसको बाथरूम ले जाने हेतु वहीं बैठे रहना और घर वापिस लाना... सब बहुत सजगता से करतीं।...साथ-साथ डॉक्टरों की सलाह पर चुपचाप बिन-बताये और अनजताये मानसी के स्वर-यंत्र(लैरिंक्स) की बढ़ोत्तरी की वजह टेस्टोस्टेरोन हॉमोन के स्त्राव पर नियन्त्रण हेतु हॉरमोन उपचार करवाने से लेकर एस्ट्रोजन संतुलन हेतु तला-मसालेदार भोजन से परहेज़ रखतीं बल्कि मोटे अनाज, फलों, सब्जियों का नियमित रूप से सेवन करवातीं। वहीं सुबह-सांझ नियमित व्यायाम योग भी... मात्र गले तक नहीं छाती तक गहरे श्वास लेने का अभ्यास... मानसी के साथ-साथ वह स्वयं भी ये सब अभ्यास करतीं। स्वर साधने हेतु तीन साल की उम्र से ही संगीत गुरूजी नैना मां से गम्भीरतापूर्वक संगीत और नृत्य शिक्षा भी साथ-साथ चल रही थी। फिर मानसी के ज़रा होश संभालते ही सुखदा ने मानसी को पास बिठाकर बहुत संज़ीदगी और गहनता से बताया-समझाया, "मानू, तुम मेरी समझदार बच्ची हो। मेरी एक बात तुम अच्छी तरह जान-समझकर गांठ बांध लो कि तुम औरों से अलग हो... यानि किन्नर हो, यह बात तुम कभी भूलना नहीं और हां, किसी और से यह बात कभी कहना भी नहीं... क्योंकि किन्नर अपनी पहचान छिपाकर ही सफल हो सकते हैं या कहूं जी सकते हैं। अगर यह बात तुमने किसी और से कही तो कुछ लोग तुम्हें मुझसे छीनकर ले जायेंगे। अगर ऐसा हुआ, तो पता नहीं मैं तुम्हारी सहायता कर पाऊंगी या नहीं। पर हां, मुझसे कभी भी कोई बात छिपाना नहीं।"

बस और क्या... सुखदा तो मानसी का वह प्रेमिल-स्नेहिल और सुरक्षा-भरा उदात्त सूरज थी, जिसके गिर्द मानसी जाने-अनजाने दिन-रात पृथ्वी-सी चक्कर काटती रहती। सो उसके लिए मां की बात पत्थर की लकीर थी। कुछ मुश्किल, तो कुछ आसानी से... सब कुछ घटता- बढ़ता जा रहा था। दुख जोंक है, एक बारी पकड़ा तो छोड़ता ही नहीं है। दुख टुकड़ा-टुकड़ा होकर भी न जलता है और न ही गलता है, वह हमेशा बचा रह जाता है...। लिहाफ बदल लेता है। असल में सुख भी दुख का एक लिहाफ है। जिसमें दुख और सुख समानान्तर चलते रहते हैं। समय का प्रवाह भी तो रुकता नहीं। ग्यारह-बारह बरस बीत गये। इस बीच सीताबाई का बेटा सांचे घर चला गया तो वह भी काम छोड़कर गांव चली गई। मानसी की वो उन्मुक्तता कहीं ग़ायब हो गई है, वो धूप में नहाती दूब,, पुलकित गिलहरियां, गरम-हवा से लड़ती–भिड़ती फूल-पत्तियां,, बदन को गरमाती हवा... वो हर पल हवाओं के टुकड़ों को पकड़ना, उछल–उछलकर तितलियों के रंगीन पंखों को छूना, जुगनुओं के पीछे भागना,, केले के पत्तों पर फिसलती शबनम से खेलना...यहां तक कि चित्रकला के पन्नों पर से रंगो के सिलसिले तक भी... और बच रहा मात्र श्वेत-श्याम लकीरों का जाल। ...और नहीं गायब हुआ तो सुखदा का दृढ़-संकल्प... कि 'नहीं देना मुझे अपना बच्चा किसी को।'

शिवांग इंजीनियर हो गया और अनुराग बैंक अधिकारी। हर अहतियात बरता उन्होंने और मानसी का रहन-सहन, व्यवहार भी काफी हद तक स्त्रियोचित्त ही रहा था, लेकिन पिछले कुछ समय से उसके बाप, भाई बहुत कुछ समझने लगे थे। दिन-रात चुप्पी साधे परिचितों की अपरिचित-सी होती आंखों के मौन में कौंधती मुखरता का हर बाण बींध रहा था सुखदा और मानसी की जिंदगी को। जो कभी मानसी पर दिन-रात जान छिड़कते थे, अब शंकालु नज़र से देखते हुए उससे खिंचे-खिंचे और सुखदा से नाराज़ रहते। ऐसे हालात में बकरे की मां आखिर कब तक खेर मनाती... और फिर जब शिवांग और अनुराग दोनों की शादियां तय हुईं, तो उन्होंने साथ रहने की पहली शर्त रखी कि मानसी को उसके जैसे लोगों यानि किन्नरों के साथ रहना होगा। वे लोग इस अभिशप्त पिटारी को अपनी ज़िंदगियों में बर्दाश्त नहीं करेंगे... और आधी रात को जमने वाली बर्फ की तरह सुखदा को उनका चेहरा बेहद कठोर होता हुआ दिखाई देने लगा था। तब अचानक सुखदा की आंखों में उनकी मां के घर आने वाली किन्नर राजी का अक्स फिर से घूम गया। चौड़े[-चौड़े हाथों से ताली पीटकर बच्चों के जन्म और शादियों के बाद बधाई-गीत गाकर नेग मांगती। सब बच्चे और बड़े उनकी आमद से घबराते भी और उनकी दुआएं भी लेना चाहते। मां ने जब खबर दी थी कि राजकुमारी हिजड़ा मर गई और फिर उनके मरने के बाद उनका भयावह अंतिम संस्कार की प्रकिया के बारे में बताया था। सुन-जानकर दहशत से कांप उठीं थीं वह...।

सच है, होश में आना कष्टप्रद होता है... पर होश में न आना उससे अधिक कष्टप्रद।

 सुखदा ने अपनी छठी इन्द्री से आगत को देख लिया था। उसे उस दिन ज़िंदगी का चेहरा फिर से बेहद शुष्क और कठोर लगा। आह,  'मासूम ज़िंदगी के हज़ार सपने, नाम न पता... सपनों में जीने की खता।' मानसी की ज़िंदगी महती है, परन्तु अपने बच्चों की शादियां करना निभाना भी तो उसका फर्ज़ है, वह निभाएगी भी... क्योंकि एक के लिए वह दूसरे की अनदेखी तो नहीं कर सकती, परन्तु उनकी वह भयानक शर्त... नहीं किसी कीमत पर नहीं। ईश्वर ने मानो सुखदा के मन में ममत्व का पुनःभरण कर दिया था, जैसे कि जंगल में वनस्पति, खेतों में अन्न या कि नदियों में पानी...। पहले वह मानसी और अपने अधिकारों के लिए झगड़ी भी... परन्तु फिर घर के पुरूषों का खतरनाक रवैया देखकर, उनसे कुछ मोहलत मांगकर स्वयं को नयी जंग के लिए तैयार करने लगी। उस रणनीति के तहत पुराने को छिपाकर नया दिखाने के लिए तुरन्त इस मकान को बेचकर नया और बड़ा घर लेने की योजना बना ली गई। मानसी की स्थानीय संगीत गुरू नैना मां से सुखदा गाहे-बगाहे बहुत सी जानकारियां पहले से ही लेती रहती थी। सुखदा ने समय की नज़ाकत देखकर चुपचाप समय पूर्व सेवानिवृत्ति हेतु आवेदन किया तथा बिना किसी से कुछ अधिक साझा किये, कुछ दिन की छुट्टी लेकर मानसी के साथ गाड़ी पकड़ जा पहुंची गुरू कृष्णमयी के संगीतालय में। मानसी सातवीं में थी उस समय। सुखदा लोट गई उनके चरणों में। शायद आने वाली कठिनाइयों और दुश्वारियों से बचने की कवायद या कुछ और... कि गुरूमां कृष्णमयी पहले साफ इन्कार करती रहीं... फिर खीझ, डांट-डपट... फिर नानुकर करती रहीं। रूआंसी और हलकान-परेशान मां के अविरल बहते आंसुओं को अपनी हथेलियों से पोंछकर तब गुरू कृष्णमयी से मुखातिब हो मानसी बोल उठी थी, "गुरूजी, मैं आपको वचन देती हूं कि आपको कभी परेशान नहीं करूंगी। आपका कहना मानूंगी और सब कुछ ध्यान से सीखूंगी, रियाज़ करूंगी और... आप को कभी भी शिकायत का मौका नहीं दूंगी। गुरूजी आप मेरी परीक्षा ले लीजिये। आपको ठीक लगे तो... परन्तु मेरी मां की बात मानकर मुझे अपनी शिष्य बना लीजिये।" सुनकर गुरूमां के चेहरे की कठोरता तिरोहित होती प्रतीत हुई थी। देखकर लगा मानो धूप में पिघलने वाला बर्फ पहाड़ों के चेहरे को तरल बनाने की क्षमता देता-रखता है। सब ऊंच-नीच बताकर आखिर उन्होंने मानसी की गुरू बनना स्वीकार लिया था और सुखदा ने सेवानिवृत्ति उपरान्त उनके संगीतालय के प्रबन्धन कार्य को संभालना।

 "मानू मेरी लाडो, ये गुरूमां कृष्णमयीजी हैं। इनका दर्जा मां से, यानि मुझसे बहुत ऊपर है।" कृतज्ञता में भीगी सुखदा ने बरसते नयनों से मानसी को देखते हुए समझाया तो अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा और शिष्यत्व का खजाना लेकर मानसी गुरूमां को समर्पित हो गई। मानो मां की रज़ा में उसकी राज़ी हो। बचपन से ही तो मां उसके अधूरेपन को पूर्णता देने के लिए... अपनी हर चीज़ से कभी पूरी, तो कभी आधी... जैसे आधा गुलाब जामुन, आधा समोसा, आधी कचौड़ी, आधी कॉफी, आधी चाय, आधा दूध, आधा नींबू-पानी उसे देती आ रही है। परन्तु आधी नदी में पूर्ण स्नान, आधा आकाश तुम्हारा-आधा हमारा, आधे-आधे से लोग करते पूरा काम, आधे पैर चढ़ जाते हिमालय, आधी बर्थ पर कर लेते पूरा सफर... को भोगते आत्मसात करते-न-करते आंसुओं से भीगी उस रात के बाद लरजते हुए ही सही, वह जीवन की ओर पहला कदम बढ़ा पाई थी। मानसी को गुरूमां के सशक्त हाथों में  सौंपकर आश्वस्त-सी सुखदा घर लौटने को उद्यत थी। प्रशस्त लॉन की हरीतिमा पर सतरंगी आभा बिखेरती डूबते सूर्य की बड़ी सी रंगीन छतरी हवा में रेशम के धागे सी झूम रही थी। दर्द में भीगी हुई हंसी कैसी होती है, यह उस दिन जाना था सुखदा ने। बड़े जतन से देखे संजोए सपनों के टूटने के निशां मानसी के गालों पे लुढ़के नियति के आंसुओं से जाहिर हो रहे थे। भरे-पुरे घर-परिवार से जुदा होने पर वह दुःखी थी, पर संयमित थी। रंगीन छतरी यथार्थ की कठोर जमीन थी और मानसी अपने पैरों पर अपनी रीढ़ के बल खड़ी थी। सुखदा ने उसके लिए रात के गहराने का इंतज़ार किया था। वह जानती थी सुबह ठीक गहरी रात के गुज़र जाने के बाद ही आ सकेगी।...परन्तु यहां लौटने के लिए जाना ज़रूरी था। सो वह घर लौटी थी।

पुराना मकान बेचकर नया दो मंज़िला मकान लिया गया। समाज में जवाबदेहियों से बचने और घर में बदलाव के लिए मकान, मोहल्ले और परिवेश का परिवर्तन आवश्यक जो था। अनुराग, शिवांग के ब्याह कर दिए। फिर सेवानिवृत्ति... लगभग चार महीने गुज़र गये थे किसी ने भी मानसी के बारे में जानने का जतन तक नहीं किया था। मानो वह कभी थी ही नहीं। चार महीने तक सुखदा उन निर्मोहियों के बीच रहकर वहीं से मानसी को मन की आंखों से देखती-पलोसती रही थी। उसे याद है, मानसी उस पर हंसा करती थी। ''मां के आठ हाथ हैं और त्रिनेत्र...एक आंख बंद दरवाज़े के पीछे देखने के लिए... जब वह अपने बच्चों से पूछती है बच्चो वहां क्या कर रहे हो। वैसे मां को पता होता है कि हम क्या कर रहे होते हैं।"

 फिर वह अपने बहुत अपनों को छोड़कर, सब कुछ छोड़कर... मानसी के पास लौट आई थी।... वहां पहुंचकर... उसे लगा था कि... यह बस उतना ही आसान है, जितना अंधेरे कमरे में सोना... हालांकि उस समय उनकी आंखों में हताशायुक्त पीड़ा थी जैसे उस कोठरी में बंद होने पर होती है जिसका रास्ता गुम हो। लेकिन जब दो अंधकार मिलकर एक होते हैं तो बीच का प्रकाश खो जाता है। प्रकाश के साथ वो सब खो जाता है, जिसे खोना ही है। जब उस घर में थे, तो ज़िंदगी की आहट से सुखदा की बेचैनी बढ़ जाती थी और वह मानसी के प्रति ज्यादा बदहवास और असुरक्षित हो जाती थी। लेकिन यहां उसे ज़िंदगी की आवाज़ कम आती। सच है, जिंदगी एक रैलेटिव टर्म है एण्ड इट इज़ ऑल्सो ट्रयू दैट मैन इज़ अ सोश्यल एनिमल। शायद इसीलिए एक जैसे दिखते लोग एक दूसरे को उतना नहीं देखते। उनकी जिज्ञासा एक-दूसरे से उतरकर पहले इधर-उधर फैल जाती है, कुछ अलग देखने की चाह में... फिर कुछ अलग को ढूंढकर उनकी जिज्ञासा और दृष्टि उसी पर अभिसरित व केन्द्रित हो जाती है।

    सच्ची बात तो यह है कि बड़े हों या बच्चे उनमें अंधकार के लिए कोई जिज्ञासा नहीं है। बस यहीं से ही यानि अंधकार में अंधकार के मिल जाने से शुरू हुई एक नये ज्योतिर्मय-पथ के अनुसंधान की यात्रा।

गुरूमां ने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत और गुरू कुमार पवन ने नृत्य और सुखदा ने मानसी के शिक्षा और जीवन का पक्ष संभाला हुआ था। मानसी की दिनचर्या घड़ी की सुईयों के साथ चलती... चढ़ते-उतरते सूरज की धूप या बढ़ते-गिरते तापमान के साथ नहीं। गहराते अंधियारे या सनसनाती हवा के साथ भी नहीं। वक़्त और मौसम यहाँ पृष्ठभूमि का काम करते,, भावनाओं को बुझाने-सुलगाने का नहीं। रियाज़-पढ़ाई-रियाज़ और बीच-बीच में स्केचिंग... वही श्वेत-श्याम... चित्रण भी करती मानसी... कभी रंगों से खेलने का जतन करती भी... अपने मन से... परन्तु हर बार रंगों के मेल के मामले में स्वयं को कच्चा ही पाती। बढ़ती उम्र के साथ ही शरीर से लेकर समाज तक से थोड़ी दुश्वारियां बढ़ीं थीं, लेकिन वह बिना कमज़ोर पड़े जूझती रही थी... और सुखदा ने हर परेशानी में मानसी का साथ दिया... उसे पल–पल सम्भाला, सहारा दिया। अपनी दबंगी से हर समय सुरक्षा भी... कोई कुछ कहने लगता तो आंख में चिंगारियां लेकर उबल पड़ती थी, हर वक्त अपनी नज़रों के दायरे में सहेजे रखती थी। वी0वी0आई0पी0ज़ के साथ उनको कदम-कदम पर कवर करते हुए कॉमैण्डो सरीखी...पल-पल की कवरेज करते सी0सी0टी0वी0 कैमरा-सी अल्ट्रास्कैन, विशेषतम सुरक्षा देने वाले स्पायडरवुमैन के साथ-साथ हर समस्या का तुरन्त फेवरेबल समाधान निकालने वाली सुपरमॉम और और भी न जाने क्या क्या...? यानि सभी खूबियों वाले मल्टी- स्पैश्यिल्टी कॉम्बो पैक जैसी सुखदा मां––– "तन–मन को भिगोते मेघ राग जैसी गुरूमां कृष्णमयी’ वक्त के तन्हा खाली फ्रेम में एकमात्र सटीक तस्वीर जैसी सुखदा मां की परवरिश का असर कहें या मां की चाह का मान करते हुए मानसी का वेश-व्यवहार स्त्रैण ही रहा। रागदारी और लयकारी के गिर्द हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बिलावल, खमाज, कल्याण, काफी, भैरव, पुरी, मारवा, मालकोस, भूपाली, बंदिशों तानों सहित मींड कण स्वर खटका और मुर्की, तोड़ी... एक ताल, तीन-ताल, रूपक, दादरा, दीपचन्दी, कहरवा... फिर तराना, त्रिवट, चतुरंग, सरगम लक्षण गीत, रागमाला, ठुमरी, दादरा, टप्पा, चैती, कजरी, सुगम-संगीत, गीत भजन गज़ल... तथा बहुत कुछ और... बरसों से संगीत की लहरियों में तैरती आ रही मानसी सबको सहजता से साध लेती... मंचों पर गुरू मां के साथ सधे हुए गायन और नृत्य से खूब शोहरत और दौलत भी पाती।

 उस दिन गुरूमां ने बताया कि 'सादरा' भारतीय उपमहाद्वीप के हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक मुखर शैली है। भीतर ताल तेवरा(7  बीट्स) सोवोल(10  बीट्स) और12 बीट्स या 10 बीट झपताल की रचना को सादरा कहा जाता है और धमार जिसमें होरी... चौदह मात्राओं की धमार ताल के निबद्ध गीत में अधिकांशतः होरी की धूमधाम के साथ ध्रुपद शैली से गाया जाने वाला गायन है। ध्रुपद चारताल, ब्रह्मताल, सूतताल, तीव्र मत्ताल, शिखर ताल आदि पखावज के तालों और संगति में गाया जाता है। 'राधा और कृष्ण इस गीत के नायक होते हैं। ब्रज में जन्मा फाग से सम्बन्धित होने के कारण इसे पक्की होरी भी कहते हैं।' तो मानसी की आंखों में बचपन में खेली होली के अक्स उतर आये थे। उसके इष्ट कृष्ण के संग राधा...का कलात्मक आत्मिक और संगीतमय आराधन... बस वह ध्रु्पद धमार साधने को आतुर ही नहीं बल्कि बावली ही हो गई थी। तो गुरू मां ने और समझाया  "ध्रुपद में सर्वप्रथम नोम-तोम का सविस्तार अलाप करते हैं... स्थाई, अंतरा... फिर उसके तीसरे अंग संचारी से आलाप की गति धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है और इसी स्थान से मीड़ और गमक का प्रयोग आरम्भ किया जाता है। आलाप के बाद पूरे ध्रुपद को उसके चारों भाग... स्थाई, अन्तरा, संचारी और आभोग सहित गायन के बाद गीत की बन्दिश द्वारा अथवा उसके शब्दों द्वारा विभिन्न बोल बनाते हुए लयकारी का विभिन्न भंगिमाओं में विस्तार करना होता हैं। यह लयकारी ही ध्रुपद की खूबसूरती है। खमाज राग का प्रचलित गीत 'राजत रघुवीर धीर भंजन भव भीर पीर' ध्रुपद ही है। वीर रस और श्रृंगार रस प्रधान शास्त्रीय-संगीत की प्राचीन गायन शैली ध्रुपद गंभीर प्रकृति का गायन है।

"मानसी पुत्री, इसे गाने में कंठ और फेफड़ों पर ज़ोर पड़ता है, इसलिए इसे मर्दाना गीत कहते हैं। इसे लड़कियों को नहीं गाना चाहिये... उनकी पेट की कोमल नसों, फेफड़ों और कंठ पर बहुत खिंचाव और ज़ोर पड़ता है। इसलिए... "

   परन्तु अति-आतुर मानसी उनकी बात बीच में ही काटकर बोल पड़ी थी, "लेकिन मैं लड़की कहां हूं, गुरू मां! मैं न लड़का हूं, न लड़की। मैं तो किन्नर हूं।"

"मानसी पुत्री, यह क्या बोल रही हो, मां ने तुम्हें कुछ समझाया था?" मानसी की स्पष्टवादिता से गुरू कृष्णमयी हतप्रभ रह गई थीं।

 "हां समझाया था कि तुम किन्नर हो यह बात न तो कभी भूलना और न ही कभी किसी से कहना।"

"फिर तुम यहां यों मेरे सामने... " 

"हां गुरू मां, कहा है... लेकिन पहली बार...  आपसे क्योंकि आप "कोई या किसी" थोड़े न हो। आप तो मेरी गुरूमां हो। मां कहती हैं, 'गुरूमां मां से भी बड़ी...' " सुनकर गुरू मां ने उसे सीने से लगा लिया था।

और सच में, मानसी ने ध्रुपद और धमार को ऐसा साध लिया था कि गुरू मां भी अचम्भित थीं। जब उसके स्वर मन्द्र के मध्यम से उतर गांधार पर पहुंचते थे, मानो समुद्र का गम्भीर नाद आंदोलित होने लगता था।

 उस दिन होली पर्व के पूर्व दिवस पर सुंदरा कला अकादमी के ऑडिटोरियम में राधा वेष में उसकी ध्रुपद धमार होरी की अद्भुत परफॉरमेंस के बाद तालियों से गूंजते हॉल में से उठकर पुरज़ोर तालियां बजाता हुआ श्रीहास बिल्कुल आगे चला आया था। एकदम स्टेज के करीब... । साथ के हॉल में उसकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी चल रही थी। श्रीहास कुछ बरस पहले मिला था संगीतालय के पश्चिम में फैले जंगल में, झरने के करीब। मानसी तो अक्सर जाती है वहां। उस दिन भी पुरानी एल्बम में दबे दाग-धब्बों से भरे कुछ श्वेत-श्याम चित्रों से दबी स्मृतियां उसके मन-जहन के पेड़ों की ऊंची शाखाओं में फड़फड़ाती फट गईं पतंगों-सी अटकी हुई थीं। जिन्हें वह डूबते सूरज में रह-रहकर देख रही थी।

श्रीहास नेचर और वाइल्ड लायफ फोटोग्राफर है, इसलिए अपने प्राफैश्शनल कैमरा और पैनी नज़र के साथ था वह। हां, गले में एक दूरबीन भी लटकाये था। "एक तस्वीर के लिए कैमरे के लेंस से कई देर तक घुमा-घुमाकर अलग-अलग कोणों से देखना... यों इतनी देर तक क्या देखते हो?" कहने लगा "सपने... हा- हा- हा- सुनिये, सपनों के गिर्द, कभी हद की दीवार मत खीचों। सपने देखो...खूब देखो और खूब देर तक देखो, पर खुली आंखों से... अपनी आँखें मत मींचो।" फिर कैमरा की स्लिंग गरदन में लटका, श्रीहास ने दूरबीन उसकी आंखों पर टिका दी थी। ज़रा आसमां में बिखरे रंग देखो... हर रंग का अपना एक स्वाद होता है,, मीठे रंग देखने में फीके होते हैं। सब चटक रंग जैसे कि लाल, हरा,, नीला, कड़ुवे होते हैं... पर सब की कड़ुवाहट अलग-अलग होती है। बस काला और सफ़ेद जो कि रंग होते ही नहीं है,, उन्हें समझ पाना थोड़ा मुश्किल होता है।" काफी हुनरमंद लगा था वह उसे। बाद में पता चला कि चित्रकार भी है और एन.जे. स्कूल ऑफ आर्टज़ में सहायक प्रोफैसर भी। फिर उसी की सलाह पर मानसी ने वहां कोर्स ज्वायन कर लिया था, शायद अपनी श्वेत-श्याम बेतरतीब लकीरों को तरतीब देने और उनमें रंगों की खिलखिलाहट बिखेरने की आस में। बस मानसी ने उसे अपने सीक्रेट झोले में महफूज़ कर लिया था, जिसमें वो हर वह शैअ डालती-सहेजती जाती है, जो उसे अलग और प्यारी लगती है... बस खुद की खुशी और साथ के लिए...। हालांकि वह और उसका झोला दो पारस पत्थरों सुखदा मां और गुरूमां कृष्णमयी से पहले ही संतृप्त और समृद्ध है फिर भी... शायद इसे किसी और शैअ की दरकार रही होगी। सोचकर... श्रीहास का साथ अपनापन,  जुड़ाव,  मोहब्बत,  परवाह, स्पर्श, संवाद... उसकी सकारात्मक ऊर्जा भी रहे हैं... जिसने उसे जीवन के बदलावों से,, विसंगतियों से लड़ने की ताकत दी। वक्त के सवालों का जवाब देने का जज़्बा भी।

  चेंज करके निकली तो श्रीहास खड़ा था, उसे अपने साथ प्रदर्शनी-हॉल में ले जाने को । मानसी ने अपने साथियों को जैसा उनका मन हो रूकने या लौटने के लिए कह दिया था। हॉल में कुछ लोग बहुत गहनता से देर तक देख रहे थे, श्रीहास की पेंटिंग्स को। शायद कुदरत में और कैनवास पर बिखरे रंगों में ज़िंदगी के रंग ढूंढ लेने का हुनर जानते होंगे वे। मानसी भी रंगों में इधर–उधर बिखरे लम्हे कभी-कभार चुन लेती है और उन्हें तरतीब देती रहती है। लेकिन तभी एक पेंटिंग में वह अटक गई थी, दो रहस्यमयी बड़ी-बड़ी गहरी आंखें। सारे ज़माने की ताब भीतर छुपाए। कितने रेगिस्तानों, कितने समंदरों को थामे... भिगो के रखा हुआ मन अब रंग छोड़ने लगा है...सोच रही थी कि क्या इतना कच्चा था...।

 श्रीहास वैसे संगीत की ज़्यादा बात नहीं करता। याद है उसे, शुरू शुरू में , संस्थान की कैंटीन में कॉफी टेबल पर बात करते हुए उसने जब कहा था–'   "श्रीहास, आपका पैर हिल रहा है, कोई द्विविधा, परेशानी है क्या या शायद कोई अन्चीन्ही सी तृषा है?"

 "टेबल के पीछे इतने धीरे-से हिलता पैर... अरे अद्भुत मानसी! आपको कैसे पता चला, कि मेरा पैर हिल रहा है?" चौंककर पूछा था श्रीहास ने।

उसने पूरी सहजता से कहा– "आपकी आवाज़ में आपके पैर का हिलना मुझे सुनाई दे रहा है।"

"अरे तो क्या आप म्यूज़िक और नृत्य भी करती हैं।"

 "हां थोड़ा-बहुत... ।"

"हूं..." पर संगीत को लेकर उसका यह 'मुझे इसकी समझ नहीं है' वाला रवैया रहता है। अच्छे  से  जानती है वह कि उसे बात पसंद है रंगों की, पेंटिंग की।

श्रीहास ने टेबल-ड्राअर से निकालकर ऑयल शीट्स पर उकेरी कुछ पेंटिग्स उसे दी... "मानसी ये आपके लिए।"

"हूं, अच्छा!"  टेबल के किनारे कुर्सी पर पैर लटकाकर बैठे हुए उसने उन पेण्टिंग्ज़ को पारदर्शी कवर से निकाल कर सूंघकर देखा, फिर देर तक यूं ही निहारती रही... "बहुत मासूम रंग हैं... "

"हां, हैं तो पर कुछ पूरे,  कुछ अधूरे...  पता है मानसी, कुछ रंग क़ुदरत ने बनाए हैं, जो अपने-आप में पूरे होते हुए भी अधूरे हैं। ये रंग मिलकर जब एक तीसरे रंग का सृजन करते हैं, तो पता चलता है कि ये कितने अधूरे थे। बस इसी तरह ढेरों रंग बनते गए और इस सृष्टि को रंगते गए, दिलों को रंगते गए... आत्माओं को रंगते गए। ये रंग न होते तो कोई चित्र न होता।कोई कविता न होती, कोई सुर न होता।" उसका एक-एक शब्द एक विशेष बिम्ब उकेरता और हर शब्द को उच्चरित करते उसके होंठ,  हर शब्द से झड़ते रंगों के अम्बार...। किसी न किसी भाव-चित्र की सृष्टि करते ये अम्बार...।... उनमें श्रीहास की महक और होने को महसूस करती रही थी मानसी। उसके साथ जिया हर रंग जो महफूज़ था, करीने से संजोकर रखा हुआ मन के एक कोने में... सलीके से एक फोल्डर में हर लम्हा संभाल रखा था... हर अहसास... सभी के सभी कतारबद्ध... एक-एक कर  निकलकर सामने आने लगे।

"ओह, तो जो रंग मिलकर तीसरे रंग का सृजन नहीं कर सकते...तो वे अधूरे ही रहते हैं... वे कोई चित्र, कोई कविता,  कोई कहानी या किसी सुर का सृजन नहीं कर सकते। उनका जीना निरर्थक होता है... मगर क्यों?।" उसके इस सवाल से श्रीहास घबरा गया था और निःशब्द भी।

पेण्टिंग्ज़ के झिलमिलाते कोनों में से निकलकर एक सतरंगी लहर हड़बड़ाती हुई आई और उसे खींचकर वापस ले आई...एक और...पेंटिंग...! ओझल होते अहसास में डूबा नायक, रोम–रोम अवसाद में डूबा हुआ। देखकर पल-भर को कुछ कौंधा, "कहीं यह तुम ही तो नहीं?" आंखों में झिलमिलाते जुगनुओं की रंगत पनीली होने से पहले ही श्रीहास ने बात बदली "इन पेंटिंग्स के रंग तो कुछ भी नहीं, जो रंग तुमने आज अपनी प्रस्तुति से बिखेरे। वाओ वन्डरफुल्ल! सोचता हूं कोई लड़की... न न... राधा, कोमलांगी होकर इस तरह इतना धमाल कैसे कर सकती है। नॉट ओनली मी बट द होल ऑडिटोरियम आय मीन ऑल थाऊज़ैण्डज़ आफ म्यूज़िक लवरज़ वर मैस्मरायज्ड़ बाय योर परफॉरमैंस। हैट्स ऑफ टू यू मानसी... एक लड़की होकर ऐसी गायकी के साथ इस तरह इतनी दमदार डांस परफॉरमेंस! "

" ........................................ " कुछ देर चुप रहकर बस देखती रही थी मानसी श्रीहास को। फिर एक लम्बी श्वास भरकर बोली थी "हां श्रीहास, सही कह रहे हैं आप, जब मैंने पहली बार गुरूमां से ध्रुपद, धमार सिखाने को कहा था तो गुरूमां ने समझाया था मुझे...'वीर और श्रृंगार-रस प्रधान शास्त्रीय संगीत की प्राचीन गायन शैली ध्रुपद को मर्दाना गायन कहते हैं। इसे लड़कियों को नहीं गाना चाहिये, उनकी पेट की कोमल नसों, फेफड़ों और कंठ पर बहुत खिंचाव और ज़ोर पड़ता है। इसलिए...'"

"फिर तुमने...? "

"धीरज रखिये, बताती हूं मैं... तब मैंने उन्हें कहा था, "लेकिन मैं लड़की कहां हूं गुरू मां! मैं न लड़का हूं, न लड़की। मैं तो किन्नर हूं।"

"मानसी तुम यह क्या...?"

 "हां श्रीहास, मां ने यह समझाया था मुझे, कि 'तुम किन्नर हो यह बात न तो तुम कभी भूलना और न ही कभी किसी से कहना।' श्रीहास आज दूसरी बार तुम्हारे सामने कहती हूं कि 'मैं न लड़का हूं, न लड़की। मैं किन्नर हूं' क्योंकि 'तुम भी कोई किसी नहीं'।" उसके हाथ पर रखी श्रीहास की पसीने से तर हथेली लरज उठी थी।

...और वह उसे वहीं छोड़कर लौट आई थी, अपने ठिकाने पर।

वह थोड़ी देर गेट पर खड़ी रहकर अंदर चली आई थी। अंदर की निःस्तब्ध दुनिया में बहुत दिनों बाद कुछ भंवर से पड़ गये थे। एक सुगबुगाहट हुई थी। जिन्हें वह स्वीकृति नहीं देना चाहती थी। उसे अपने पथराये हुए मौन से मोह हो गया था। इनसे छूटकर किसी उत्सव का हिस्सा उसे अब कभी नहीं बनना है। मातम के मौसम में यह सब वर्जित है और अब यह मौसम उसके जीवन में हमेशा के लिए है। बिना छुए उसने उन्हें उदासीनता से एक ओर परे करके रख दिया था। 'उसे कुछ भी नहीं चाहिये, ज़िंदगी उसे परेशान न करे... खुशियों की यहां कोई दरकार नहीं।' पसीने से सारा शरीर चिपचिपा गया था। बाथरूम में देर तक ठंडे पानी से नहाते रहना उसे अच्छा लग था। वह गुनगुना उठी थी  'अच्छा है सब कुछ खत्म नहीं हो गया है भीतर। जैसे थोड़ी देर पहले सोचा था...  जिजीविषा अब भी कहीं बची हुई है।' धूप में बादामी पड़ गये चेहरे पर पसीने की नन्ही बूंदें झलक आई थीं। बाएं नासपुट पर वे लौंग सी चमक रही थीं। उसने अपना चेहरा ज़रा-सा घुमाकर फिर आइने में स्वयं को देखा--- जो राख हो गया है, उसमें भी कहीं कोई टुकड़ा सुलगता हुआ रह ही गया है। ज़िंदगी कितने-कितने चेहरों में सामने आती है। हा हा...  

तीन दिन बीत गये थे। उसे उसकी निराशा लहू लुहान कर रही थी। आज भी सुबह से रियाज़ नहीं, कोई काम नहीं, न कोई बातचीत ही...। फाल्गुनी दोपहर खिड़की पर अलस झर रही थी। उसी के अमलतासी उजास में कमरा अनायास ही दिप-दिप कर उठा था। हल्की गर्म हवा में आम की फूलती मंजरी की तेज़ तुर्श गंध थी। एक गहरी सांस के साथ उसे अपनी नासपुटों में भरते हुए वह दरवाज़े पर खड़ी थी। हल्दी चढ़ी धूप में पारदर्शी हो उठे झीने पर्दे हल्के-हल्के लहरा रहे थे। उनकी तरफ देखते हुए लगा था कि उसके भीतर भी ऐसा ही कुछ निःशब्द डोलता हुआ सा है, जो एक ही साथ मधुमय भी है और पीर-भरा भी। शायद वे बचे-खुचे अभागे स्वप्न... जिन्हें कभी देख लेने की कीमत उसे आज भी कहीं न कहीं जाने-अनजाने चुकानी पड़ रही थी। विडंबना जीवन की शायद यही है कि सपने तो अंततः टूट ही जाते हैं मगर उन्हें देखने वाली बातें रह जाती हैं। कच्ची कब्रों की तरह अभिशप्त अपने अंदर बहुत प्रिय कुछ दफनाए हुए समय के सूने गलियारे का उदास सफर निसंग तय करते हुए किसी कयामत की अंतहीन प्रतीक्षा में निःशब्द निरंतर। वह समझ रही थी आज भी और कुछ करना संभव नहीं होगा। सोच में आंसू घुल गये हैं, सब अक्स फीके-फीके धुंधलाए ही उतरेंगे। वह कमरे से बाहर निकल आई थी। टहलती हुई बाईं तरफ जाने वाली संकरी पगडंडी पर चल पड़ी थी। उसे बाहर निकलते देख सुखदा पीछे आई थी।

उसने हंसकर टाल दिया था, "बस यहीं हूं मां, थोड़ा टहलकर लौट आऊंगी।"

वह जंगल की पगडंडियों पर अनमनी-सी चलती रही थी। पैर के नीचे आते सूखे पत्तों और चारों तरफ झींगुरों के तेज शोर की पृष्ठभूमि में एक अलक्षित सन्नाटा था जिसे वह अपने अंदर कहीं गहरे से महसूस कर पा रही थी। घने पेड़ों के खत्म होते ही कुछ दूरी पर बेतरतीब से फैले पत्थरों के बीच से एक झरना रह-रहकर फूट रहा था। वह पहले भी यहां आकर बैठा करती थी। शाम के धुंधलके में ग्रीष्म-ऋतु में सूख आई उसकी जीर्ण-शीर्ण धारा का मंथर गति से बहना और आस-पास जंगली तोतों का कलरव उसे बहुत अच्छा लगता था। यहां आकर कुछ देर के लिए सही, पर वह सब कुछ भूल जाती थी। एक नीरव शांति से मन भर उठता था। सारी दुनिया की आपाधापी एक अश्रुसिक्त अतीत और तकलीफों की लंबी फेहरिस्त पर क्षणांश के लिए ही सही, पर्दा पड़ जाता था। चलते हुए यकायक वह खुले में आ गयी थी। अपनी चप्पलें उतारकर पत्थरों पर चलती हुई वह झरने के तल में बने कुण्ड के पास आकर पानी में पैर डुबोकर बैठ गयी थी। ठंडे पानी की सिहरन तलुओं से होते हुए शरीर में फैल गयी थी। उंगलियों से छल-छल बहते पानी को छूते हुए वह निरूद्देश्य-सी अपने चारों तरफ देखती रही थी। शाम के डूब जाने से पहले का उजाला चारों तरफ था। गहरे रंगों के शेड्स में क्षण-क्षण परिवर्तित होते हुए एक स्वप्न का दृश्य रचते हुए। सूर्य का अभिसार।  ऊंचे घने पेड़ों के माथे पर शुक्ल पक्ष का भरा-पूरा चांद आधे से अधिक उठ आया था। उसका चंदन--सा हल्का पीला रंग अब सेमल पलाश के दूर-दूर तक फैले वृक्षों पर फीकी रोली की तरह चढ़ने लगा था। डूबते दिन की हल्की रोशनी और उठते चांद के आलोक में सामने आइने-से झक नीले आकाश पर सुडौल चांद एक बड़े रूपहले थाल की तरह जगमगा रहा था। सांझ के म्लान आलोक में सिर के ऊपर से रह-रहकर पाखी पंख फटफटाते हुए उड़े जा रहे थे। पूरा वातावरण अरण्य के आदिम अभेद रहस्य से आप्लावित हो उठा था। कुछ ही दूरी पर अपनी घनी जटाएं फैलाए समाधिस्थ से प्राचीन बरगद की डाली पर रह-रहकर रात जगे पक्षियों का कचर-मचर सुनाई दे रहा था। हवा में काई और जंगली घास की उग्र तीखी गंध तैर रही थी। निविड़ वन की मूक भाषा से वन-वनांतर मुखरित हो उठा था। सोने से पहले जंगल कुछ इसी तरह से रोज़ जाग पड़ता है, उसने हर बार देखा है। अपनी आंखें मूंदकर उसने इस नीरव शांति को महसूसना चाहा था। अंदर शिराओं में रात दिन खौलता हुआ-सा रक्त का प्रवाह जैसे अनायास मद्धिम पड़ने लगा था। पसीने से भीगे माथे पर हल्की ठंडी हवा की छुअन सुकून दे रही थी। उसे लगा कहीं से वह जुड़ा रही है, अंदर एक पानी का सोता जैसा कुछ बहुत शीतल निःशब्द बह निकला है। न जाने वह इस तरह से कब तक चुपचाप बैठी रही थी... कि जब पीछे से आती किसी की हल्की पदचापों ने उसे चौंका दिया था। उसने मुड़कर देखा था। कोई सांझ के झुटपुटे में उसीकी तरफ बढ़ा चला आ रहा था। वह अचानक सतर्क होकर अपने अस्त-व्यस्त कपड़े संभालकर उठ खड़ी हुई थी। मन आशंकाओं से घिर गया था। ऐसी निर्जन संध्या और वह बिल्कुल अकेली। आतंकित करते हुए विचारों को जबरन अपने से परे धकेलते हुर वह किसी तरह सीधी खड़ी रही थी। अब तक वह छाया काफी पास चली आई थी। चांदनी में उसका चेहरा चमकने लगा था। आज महसूस हो रहा है कि पास न होने पर भी कोई रह सकता है चुपचाप कुछ इसी तरह... किसी किताब के मुड़े हुये पन्ने में, दिल के बसेरे में, जिंदगी की सिलवटों में... परन्तु उनका स्तब्ध-शून्य उनके भराव में निरंतर गूंजता रहता है।

वह बिना कुछ कहे चुपचाप उसके पीछे चलती रही थी। दूर नदी किनारे जंगली झाड़ियों के पास कोई अकेली पड़ गई टिटहरी दिशाहारा-सी रह-रहकर पुकारती फिर रही थी। इस वन्य इलाके में वह स्वयं को खो देना चाहती थी, अपने अब तक के हर उस हासिल के साथ, जो उसे अब पीड़ा के सिवा कुछ भी नहीं देता था। काफी देर तक दोनों के बीच एक असहज-सी खामोशी फैली रही थी। जैसे कुछ कहना चाह रही हो, पर कह नहीं पा रही हो। अचानक खामोशी ने कलाम किया और मानसी का हाथ थामकर आगे-आगे चलते हुए उसने मुड़कर कहा था, "मानसी तुम मुझे अपनाओगी? मानसी मुझे भी आज तक जो भी मिला आधा... आधा अमरूद, आधा कप चाय... पूरा नहीं भरा कभी मेरा प्याला। हां, जहर भी मिला तो आधा... इसलिए अभी तक ज़िंदा हूं। मरूंगा भी तो आधा... आधे अन्धेरे, आधे उजाले में... तुम्हारा स्पर्श अनमोल है मेरे लिए। जिस्मों के आलाप में नहीं, प्रेम का ध्रुपद है यह... जिसके आरोह में उठती है एक पुकार और अवरोह में ध्यानमग्न हो जाती हैं आंखें। हमारी मैत्री कपास जैसे लावण्य से नहीं, पीले आनंदित और अलसाते मोह से है।"

"आधी सुबह आधी शाम का यह वक्त कितना अच्छा लगता है। है न श्रीहास... मैं अपनी ज़मीन से ऊपर उठकर तुम्हें प्रेम करने की आस्था में हूं और इस कोशिश में भय के शोक का मंत्र अपनी भूरी-नीली आंखों के किनारे पर जब जब छोड़ती हूं वो लाल रंग का हो जाता है।...और मैं मग्न होकर अशेष होने की सम्पूर्ण चेष्टा में काया में दोहरेपन का उत्सव मनाती हूं। मेरी जिंदगी उतनी ही बंजर हैं, जितने खानाबदोश तुम्हारे कहे आखिरी शब्द। खाली फ्रेमों को तोड़ देना बेहतर है... जिनकी चमक चुभती है। बेहतर है, कभी-कभी विध्वंस अपना और..." बोली थी मानसी।

मानसी की बात बीच में ही काटकर उसके हाथ पर अपने हाथ का दबाव डालकर बोलता हुआ श्रीहास "मैं अपना रंग खो चुका गुलाब, आकार से मुक्त हो अपना सामथ्र्य त्याग चुका हूं... जो अपने भीतर बचे संगीत की बारीक लकीर पर चल सकता हो, जो अपने जन्म की पुष्टि स्वयं कर सकता हो। पर मैं भाग नहीं पाता हूं... मेरा पलायन उतना ही छोटा और निरीह है, जितना मेरा मुकद्दर।" हाथ थामकर वह स्वप्निल से लगते रात के नीले अंधकार में चलते हुए हठकर धीरे-धीरे कहीं उसका हो गया था।

सुखदा, गुरूमां कृष्णमयी और श्रीहास देख रहे थे; सामने गरिमामय मंच पर अपना अति-विशिष्ट सम्मान ग्रहण करने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज़ मानसी आज अपनी संपूर्ण भव्यता, आत्मिक-तुष्टि और वैभव के साथ डायस से शिष्ट-भाषा में अति विशिष्टता के साथ अपना उद्बोधन दे रही थी। प्रिय मित्रो, तीन बरस पहले मुझे मेरी उपलब्धियों और काम के लिए देश के अति प्रतिष्ठित सम्मान पद्मश्री से नवाजा गया और आज हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में इस सर्वोच्च सम्मान से... आज इस भव्य-मंच से मैं मानसी सुखदा गुणीजनों की सभा में विद्यमान सभी बुद्धिजीवियों से,  आपसे... अपनी ज़िंदगी को साझा करती हुई: कहने का साहस कर रही हूं कि 'मैं न लड़की हूं, न ही लड़का बल्कि किन्नर हूं।' किन्नर जिन्हें हम पहचानते तो हैं पर जिनके बारे में जानना नहीं चाहते। जिनके लिए महज़ इंसान होने की ख्वाहिश रखना भी एक गुनाह है, जो खौफनाक ज़िंदगी, दर्दनाक अंत, तिरस्कार, प्रताड़ना को खामोशी से सहकर अपूर्णता के दंश को अंतिम क्षण तक भुगतते हैं।

  मेरी मां सुखदा को यह बात मेरे जन्म से पता थी।...और उन्होंने मुझे कहा था कि' "तुम किन्नर हो यह बात न तो भूलना और न ही किसी से कहना" मैंने पहली बार यह बात अपनी गुरूमां कृष्णमयी से और दूसरी बार अपने हमसफर श्रीहास से कही क्योंकि वे मेरे लिए 'कोई या किसी' नहीं बल्कि बहुत अपने थे और हैं। आज मेरी इतनी तपस्या, साधना तथा संघर्ष के बाद मुझे लगा-- कि आप भी 'कोई किसी नहीं' बल्कि मेरे अपने हैं क्योंकि यहां इस मंच से मेरी कला और विद्वता को सम्मानित किया गया है, न कि दैहिक क्षमताओं को। मां कहती थी कि "किन्नरों को अपनी पहचान छिपाकर ही सफलता मिलती है।" आप देख सकते हैं, कि यह तो बिल्कुल सत्य सिद्ध हुआ है; पहचान छिपाकर ही मेरी क्षमताओं और प्रतिभा को आकार मिला और आज मैं अपनी सफलताओं, उपलब्धियों के साथ आपके सामने हूं; यह सिद्ध करने के लिए कि संतानोत्पत्ति को छोड़कर और ऐसा क्या काम है जो किन्नर सामान्य-जन की तरह नहीं कर सकते... और संतानोत्पत्ति तो बहुत से कथित सामान्य-जन भी करने में असमर्थ रह जाते हैं। जिन्हें आप बांझ, नपुंसक या हिजड़ा कहकर प्रताड़ित करते हैं। आखिर क्यों? वे तो पहले ही स्वयं के अधूरेपन से आहत होते हैं, फिर आप क्यों स्वयंभू समाज के ठेकेदार बनकर उन्हें कोंचते प्रताड़ित करते हैं भला? ईश्वर की रचना को चुनौती देने का अधिकार किसी को क्योंकर? समाज की विकृत मानसिकता से परे उसके लिए सदा असामान्य जीवन जीने की विवशता क्यों? क्यों नहीं उसके लिए एक सहज, सामान्य जीवन जीने की व्यवस्था? वे कथित सामान्य-जन को क्या नुक्सान पहुंचा सकते हैं, यह समझ से बाहर है? जननांग-त्रुटि होने में संतान का क्या दोष? माता-पिता या ईश्वर का हो तो हो। फिर सज़ा जननांग-दोषी को क्यों? शारीरिक विपन्नता की विडंबनाओं के अतिरिक्त एक अन्य चुनौती-- आर्थिक विपन्नता के रूप में किन्नर समुदाय को झेलनी पड़ती है। किन्नर समुदाय लोगों के मगलपर्वों और उत्सवों पर नाच-गाकर, तालियां पीटकर अपना जीविकोपार्जन करते हैं। भारत में सरकारी नीतियां भी उनके अनुकूल नहीं हैं। सरकारी नौकरी प्राप्त करने का कोई प्रावधान नहीं है। पहले उसे निकम्मा नाकारा बनाया जाता है फिर जीवन-भर जताया जाता है और उसे कोंच-कोंच कर सताया जाता है। इसलिए वह प्रायः असहाय अवस्था में सड़कों पर,  रेलगाड़ियों में तालियां पीटकर मांगते हुए दिखाई देते हैं। ‘क्योंकि समाज उन्हें मुख्य-धारा में शामिल होने नहीं देता। उन्हें शिक्षा-प्राप्ति और ज्ञानार्जन का अधिकार, अपने को सिद्ध करने के अवसर प्रदान नहीं किये जाते, उनके साथ इतनी क्रूरता क्यों?यह किसी भी कोण या बिन्दु से मनुष्यता का रवैया कैसे हो सकता है भला? समाज में शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग अक्षम लोग भी तो होते हैं। वे अपने श्रम और उत्साह से सामान्य जीवन जी सकते हैं तो फिर हम क्यों नहीं, लैंगिक-विकृति की इतनी बड़ी सज़ा क्यों? नाचना, गाना करके जीवनयापन करने की बजाय उन्हें मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना चाहिये। उनके सामने केवल मरूस्थल है, उन्हें सहानुभूति नहीं केवल साथ की ज़रूरत है जिसके लिए किसी रिश्ते में बंधने को वह मोहताज नहीं है। किन्नर समुदाय में शिक्षा का अभाव होता है। उन्हें शिक्षा का अवसर मुहैया नहीं कराया जाता। यदि किन्नर समुदाय स्वयं चेतन हो जाएंगे तो वे स्वयं अपनी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। हम जननांग-तौर पर आधे-अधूरे हो सकते हैं परन्तु शारीरिक, मानसिक, आत्मिक क्षमताओं  में किसी भी तरह कम नहीं। कमी है तो बस हमारे लिए सामाजिक स्वीकार्यता और समान अवसरों की। इसके लिए यह हमारे ऊपर ही छोड़ दिया जाना चाहिये कि हम स्त्री होकर रहना चाहते हैं या कि पुरूष। हम कोई आरक्षण, विशेष छूट या दया, करूणा नहीं मांगते बस जीने का नैसर्गिक और मानवीय अधिकार... परित्याग न करे परिवार... और समान अवसरों की दरकार...।

 लोग कहते हैं कि किन्नरों के भाग्य में परिवार सुख नहीं होता। लेकिन मेरा एक भरा-पूरा परिवार है। मेरी गुरूमां माननीया कृष्णमयी देवि, मां सुखदा और साथी श्रीहास और अब तो एक वृहद परिवार अपने संगीत एवं नृत्य अकादमी के रूप में 'श्री सुखदा कृष्णमयी कलायन ' भी है। गुरू मां जिसके संरक्षक और मां प्रबन्धक हैं और जहां कला साधना हेतु भरे जाने वाले प्रवेश-प्रपत्र में तीसरे या अन्य लिंग का कोई खाना नहीं है, सब अपनी इच्छा से स्त्री या पुरूष, जो वे स्वयं को महसूसते हैं...भरने को आजाद हैं। जहां सफलता पाने के लिए किसी को भी मानसी की तरह लिंग या जननांग-दोष छिपाने की दरकार नहीं होती। 15 अप्रैल 2014 को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) के तहत निजता और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का अधिकार के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने तीसरे लिंग को भी मान्यता दी। मानवाधिकार के तहत ट्रांसजैंडर को तीसरा या अन्य-लिंगी के रूप में स्वीकार्यता दी गई है ताकि लोग समझें कि लिंग-त्रुटि शारीरिक विकलांगता नहीं है, हारमोनल डिसआर्डर या गुणसूत्र-त्रुटि अछूत रोगों की श्रेणी में नहीं। अपने सब साथियों की सिफारिश में... कि उन्हें उनका प्राप्य देने में आप मन-भावना से हमारा साथ दीजिये बस उन्हें कोई विशेषाधिकार न देकर सामान्य जीवन जीने का अधिकार, उन्हें सम-दृष्टि से देखते हुए समता समानता का अधिकार तथा उनकी आत्मिक अनुभूतियों के तहत स्त्री या पुरूष-स्वरूप चुनकर उसमें रहने देने का अधिकार दे दीजिये। हम संतान उत्पन्न नहीं कर सकते तो, हमारे लिए लोगों को यों खुश रहना चाहिये कि हम जनसंख्या में वृद्धि न करके एक तरह प्रकृति और संसार के साधनों, संसाधनों के रक्षण-संरक्षण में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सहयोगी हो कर प्रकृति की सहायता भी कर रहे हैं। हम भी अपनी समस्त ऊर्जा, आस्था और प्रतिबद्धता के साथ देश की प्रगति में सहयोगी सिद्ध होंगे । मैंने देखा है कि किन्नरों की उपलब्धियों और क्षमताओं का सामान्य-जन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हर बार, हर जगह उसका नपुंसक होना ही उसकी शख्सियत व्यक्तित्व का प्रमाण-पत्र, उसकी विशेष ताली उसके हस्ताक्षर और उसके सभी गुणों पर भारी पड़ जाता है। कितनी बेचैनी, कितनी विवशता... एक ही देह में बंटी जाने कितनी देह... हर देह का अपना एक दर्द थोड़ा-थोड़ा दुखता, थोड़ा-थोड़ा रिसता हुआ-सा। हम बाहरी तौर पर दिखने में भले ही थोड़े अलग लगें, पर आपकी तरह ही इंसान हैं और आप सबकी तरह ही – शारीरिक और भावात्मक ज़रूरतें रखते हैं।

 नहीं जानती, कि आप मुझे अपने परिवार का मानते हैं; पर मेरा मानना है...जो गुरू साहब का मानना है... कि  'मानस की जात सभै एकै पहचानबो... " इसलिए क्यों सोचते हैं आप कि हम 'खोटे सिक्के हैं' जो नहीं चलते या हम 'मसान के फूल' हैं जो देवों पर नहीं चढ़ते... एक बार कोशिश कर के तो देखिये हमें भले ही जननांग-यौनांग रूप से अधूरा कहें परन्तु तीसरा लिंग, तीसरी ताली न मानकर अपने जैसा स्त्री पुरूष तथा 'किं...नर' न कहकर नर या नारी स्वीकार कर लें... । 

         क्योंकि 'पूरे की ख्वाहिश में इंसान बहुत कुछ खोता है... भूल जाता है कि आधा चांद भी खूबसूरत होता है।'

हॉल की निःस्तब्धता को भंग करती कुछ लोगों की तप्त फुसफुसाहटें दीवारों के भीतर चकफेरी खा-खा कर वहीं दम तोड़ने लगी थीं।हां, वे खुले आसमान तक नहीं आ रही थीं। अचानक राष्ट्रपति महोदय तालियां बजाते हुए अपने आसन से उठे और उन्होंने बढ़कर अपना हाथ मानसी के सिर पर रख दिया। राष्ट्रपति ने उद्घोषक से कहकर मानसी की मां सुखदा, गुरूमां कृष्णमयी और श्रीहास को मंच पर आने का आमन्त्रण दिया। चार सशक्त किरदारों का परिवार एक साथ सम्मानित-विभूषित हो रहा था और अब वहां केवल लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट उड़ रही थी...

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